अंग्रेजी में कहते हैं ...


किसी भी फिल्म या नाटक के लिए लिखी गयी यह मेरी पहली टिप्पणी है | इस फ़िल्म के बारे में लिखने की एक ख़ास वजह यह भी हो सकती है कि इस फिल्म के प्रमोशन इंटरव्यू को जब पहली बार द लल्लनटॉप पर देखा था तो बहुत सी ऐसी नयी बातें देखने को मिली जिनको लिखे बिना मैं रह नहीं पाया |

फ़िल्म की शुरुआत होती है अल्ल्हड़ और ख़ुशमिज़ाजी से भरपूर एक शहर , बनारस से | यह सिर्फ बाकि लोगों के कहने भर के लिए शहर होगा लेकिन यहाँ के लोगों और ख़ुद अपने लिए यह शहर आज भी भीतर से एकदम देसी है | फिल्म का पहला द्रश्य शुरू होता है बनारस के नंदेश्वर घाट से , और घाट की सुंदरता में बढ़ोत्तरी करते हुए वहां की भीड़, मंदिर में सुबह की मंगला आरती की आवाजें और घाट की सीढ़ियों से छलांग लगाते हुए बच्चे |

कहानी के मुख्य किरदारों से मुलाकात होती है इसी घाट के पास बने एक घर “ बत्रा निवास “ में | घर में सबसे पहले हम मिलते हैं मिसिज किरन बत्रा के किरदार में एकावली खन्ना से जोकि इस मिडिल क्लास घर को हमेशा अप्पर क्लास या उससे भी बेहतर बनाये रखती हैं | सुबह की चाय में आधा चम्मच चीनी के साथ दिन की शुरुआत करने वाली किरन बत्रा एक बहुत ही शांत और बेहद सरल स्वाभाव की गृहणी हैं जो इस घर और घर के लोगों का बेहद ख्याल रखती हैं और ऐसा ये सिर्फ 24 सालों से कर रहीं हैं | अरे नहीं, ये सिर्फ 24 सालों वालीं बात मैं कह रहा ऐसा तो मानना है इस घर के और कहानी के सबसे ख़ास नाम, यशवंत बत्रा के किरदार में मेरे सबसे अज़ीज़ अभिनेता संजय मिश्रा जी का | बत्रा साहब का हमेशा ध्येय वाक्य यही होता है कि “ ये घर संभालती हैं, मैं दफ्तर जाता हूं, इसे निभाने को कहते हैं शादी “ बिना इस बात को समझे कि जिंदगी में बहुत सी ऐसी बातें होती हैं जिन्हें समय समय पर कहते रहना चाहिए जिससे कि जिंदगी और भी ख़ूबसूरत और आसान हो सके | यशवंत बत्रा का किरदार एक ऐसे पति और एक पिता का किरदार है जो अपने परिवार के लिए बहुत कुछ अच्छा सोचता है बहुत कुछ बेहतर करना चाहता है लेकिन कभी भी परिवार के साथ बैठकर दो प्यार की बातें करना नहीं जानता है | वह थोडा दब्बू किस्म का व्यक्ति है जो सीधे तौर पर अपनों से बातें करने में, उनको गले लगाने में झिझकता रहता है | धीरे धीरे कहानी आगे बढती है और एक समय ऐसा आता है कि यशवंत के इसी संकोच की वजह से किरन उससे हमेशा के लिए दूर जाने वाली होती है और शायद थोड़े वक्त बाद चली भी जाती है | जब घर में अकेलेपन और सन्नाटे की चीख़ इतनी तेज़ हो जाती है कि वह यशवंत के बर्दाश्त के बाहर हो जाती है तब जाकर उसे समझ आता है कि किरन उसकी जिंदगी में क्या अहमियत रखती थी | कहानी में थोड़े समय के लिए फ़िरोज़ के किरदार में पंकज त्रिपाठी भी हैं जोकि मेरे  पसंदीदा अभिनेताओं में से एक हैं | फ़िरोज़ का किरदार कहानी में इस तरह से आता है कि यशवंत को जीवन के उस पहलू से रूबरू करा देता है जिससे वह अभी कतराता रहता था | फ़िरोज़ अपनी बीमार पत्नी की खूब देखभाल करता है जिससे वह जल्दी ठीक हो जाये लेकिन उसकी आशाओं के विपरीत होता कुछ और ही है |

फ़िरोज़ से एक मुलाक़ात के समय यशवंत उससे पूछता है कि क्या उसने लव मैरिज की है ?? इस बात का जवाब फ़िरोज़ बड़ी ही आसानी देता है कि - “ हाँ, मैंने लव मैरिज और मैरिज लव दोनों ही किये हैं “ यह एक ऐसा जवाब था जिसने यशवंत को यह सोचने पर मजबूर कर दिया था कि आख़िरी बार कब उसने किरन के साथ में बैठकर चाय पीते हुए गपशप की थी ? कब उसके हाथ से बने खाने की तारीफ़ की थी ? आख़िरी बार कब कहा था की तुम उस नीली वाली साड़ी में बेहद खूबसूरत दिखती हो ?? बस यही कुछ एक शब्द थे जिनको कहने भर से ही उन दोनों के बीच की दरारें हमेशा के लिए ख़त्म हो जाती लेकिन यशवंत ने इस बात को समझने में काफी देर कर दी थी | उसे जब आख़िरी बार किरन का फ़ोन आया था तो उसे यह कहना चाहिए था कि  - “ किरन, मैं तुम्हारे बिना ये जीवन नहीं जी सकता हूं , तुम मुझे छोड़ कर मत जाना “ बजाय इस बात के कहने के कि - “ तो जाओ फिर , आखिर क्या फर्क पड़ता है | “ लेकिन फ़िरोज़ और उसकी बीमार पत्नी के बारे में जानकर यशवंत अब अपनी की हुई गलती पर दुखी होता है | लेकिन जैसा कि कहानी में कहा गया है कि हम सब किसी फिल्म के शाहरुख़ खान तो नहीं होते जो हम अपनी किरन को बड़ी ही आसानी से मना लें लेकिन हम सब अपनी जिंदगी के, अपनी अपनी कहानी के हीरो जरूर होते हैं और हम उस कहानी को जैसे चाहें वैसे आगे बढ़ा सकते हैं | इस कहानी का अंत बड़े ही रोचक ढंग से होता है मतलब हैप्पी एन्डिंग वाला होता है, जो आपको फिल्म देख कर ही पता चलेगा और तभी जानने में मज़ा भी आएगा | यह कहानी हमें बताती है कि अगर हम मनुष्य हैं तो हमें प्यार करना और दिखाना दोनों ही आना चाहिए, फिर चाहे वह प्यार बाप-बेटे के रिश्ते में हो, अपने परिवार के लिए हो या फिर पति-पत्नी के लिए हो |

अगर आप इंसान हैं तो इंसान होने की पहली शर्त यह है कि आपको प्रेम करना आना चाहिए | क्यूंकि जीवन में अगर कुछ बातों को सही समय और सही जगह यह समझकर ना बोला जाये कि ‘उसे तो पता ही होगा’ तो गुरु बहुत समस्या हो सकती है इसलिए बातें करते रहना चाहिए | यह कहानी हमें एक सीख और भी देती है कि – “ जब चीज़ें आँखों के पास हों तो अक्सर धुंधली हो जाती हैं, फिर जब दूर होती हैं तो साफ़ दिखने लगती हैं, लेकिन अगर बहुत दूर हो जाएँ तो भी दिखना बंद हो जाती हैं |”

                            - देवेश दिनवंत पाल |

 

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