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शिकारा ( फिल्म रिव्यू आर्टिकल)

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                            शिकारा फिल्म रिव्यु आर्टिकल को लिखने के क्रम में यह मेरा पांचवां आर्टिकल है | इस फिल्म में भारतीय इतिहास की उस घटना का बड़े ही विस्तृत और सटीक तरीके से वर्णन किया है जिसके कारण 4,00,000 कश्मीरी नागरिकों को अपने घर और कश्मीर को छोड़कर प्रवासियों की तरह जीवन व्यतीत करना पड़ा | इस घटना के बीच में ही एक प्रेम कहानी भी पनपती है | उस कहानी को भी बेहद खूबसूरत ढंग से प्रस्तुत किया गया | विधु विनोद चोपरा के निर्देशन में बनी इस फिल्म की शुरुआत होती है एक इत्तेफाक से | इत्तेफाक ऐसा जो व्यक्ति के जीवन में प्रेम को परिभाषित कर उसका बोध कराकर चला भी जाता है , यह बात को जानते हुए भी कि “ जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है  |“  कहानी के मुख्य किरदार में डॉ. शिव कुमार धर (आदिल खान ) हैं जोकि एक कॉलेज प्रोफेसर हैं | और दूसरी तरफ शांति सब्रू (सदिया) हैं जोकि पेशे से नर्स हैं | यह दोनों ही अनजान लोग समय के संयोग से एक फिल्म की शूटिंग देखने कश्मीर की किसी घाटी में जाते हैं | इत्तेफाक से जब श...

शहीद दिवस

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                                                                                  प्रस्तावना गाँधी जी अपनी किताब हिन्द स्वराज में कहते हैं “ मैं जितने तरीकों से वायसराय को समझा सकता था, मैंने कोशिश की | मेरे पास समझाने की जितनी शक्ति थी, इस्तेमाल की | 23 वीं तारीख़ की सुबह मैंने वायसराय को एक निजी पत्र लिखा जिसमे मैंने अपनी पूरी आत्मा उड़ेल दी | भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे लेकिन वे हिंसा को अपना धर्म नहीं मानते थे | इन वीरों ने मौत के डर को भी जीत लिया था, उनकी वीरता को नमन है | खून करके अगर शोहरत हासिल करने की प्रथा शुरू हो गयी तो लोग एक दुसरे का क़त्ल करके न्याय तलाशने लगेंगे “ इस कथन को पढते वक्त मैं 23 मार्च,1931 के उस दिन को, उन सभी लोगों को और उन सभी परिस्थितियों को याद कर रहा था जो उस दिन के प्रत्यक्ष गवाह रहे होंगे | कई दोस...

यात्रा संस्मरण

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प्रस्तावना काव्यनामा के इस पेज पर ऐसा शायद पहली बार हो रहा है कि मैं किसी अन्य व्यक्ति के लिखे हुए शब्दों या लेख को यहाँ प्रकाशित कर रहा हूं | लेकिन मेरा मानना है कि शब्दों में इतना सामर्थ्य होता है कि वह अपनी जगह ख़ुद ही बना लेते हैं | अब वह जगह चाहे कागज़ के पन्नों पर बनानी हो या पाठकों के मानस पटल पर | पूजा सक्सेना जी के शब्दों में मुझे वह सामर्थ्य बिल्कुल साफ़ दिख रहा था जब मैंने उनके लेख को पढ़ा | उनके इस लेख को पढ़ते समय मुझे हिंदी साहित्य में यात्रा वृतांत के युगवाहक राहुल सांकृत्यायन जी का साहित्य खूब याद आ रहा था | पूजा जी ने शब्दों का चयन बड़ी ही तन्मयता के साथ किया है जोकि इस लेख को और भी असाधारण बना रहा है |                                        - देवेश दिनवंत पाल |   ************************************************************* देशाटन शब्द से ही हमें इसके अर्थ का पता चल जाता ह...

मेरी प्यारी बिंदु - (फ़िल्म रिव्यू आर्टिकल)

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फिल्म रिव्यु आर्टिकल्स को लिखने के क्रम में यह मेरा तीसरा लेख है | इस लेख को लिखने के पीछे वैसे तो कई और भी वजह मैं बता सकता हूं लेकिन सबसे जरूरी और ख़ास बात मेरे लिए इसे लिखने की रही वो यह है कि इस फ़िल्म को मैंने पहली बार जब देखा तब इसके मायने उतने नहीं समझ पाए थे जितना आज इस वक्त लिखते हुए सोच पा रहा हूं | इस फ़िल्म को इतनी बार देख चुका हूं कि अब इसकी गिनती याद नहीं | हां लेकिन जब भी देखता हूं हर बार इसकी कहानी एक नयी बात का अहसास जरूर करा जाती है | बस उसी नयी बात को इस आर्टिकल में लिखने जा रहा हूं, जो अब तक अपने तक ही सीमित रखता था | यह कोशिश कितनी सफल होती है और कितनी असफ़ल, इसका निर्णय आप स्वयं इसे पढ़ने के बाद करियेगा | - देवेश दिनवंत पाल |        13/02/2021 (12:10 AM) “प्यार करना तो बहुत लोग सिखाते हैं, मगर अफ़सोस कि उस प्यार को भुलाते कैसे हैं ये कोई नहीं सिखाता |” इस लाइन को लिखने की सबसे सही जगह मैं शुरुआत में ही समझता हूं क्यूंकि इस आर्टिकल और इस फ़िल्म दोनों में ही कहानी की शुरुआत और उसका विराम इसी एक लाइन के साथ होता है | कहानी की ...

Film review article on मुगल ए आज़म , ( The iconic film of Indian film industry)

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“तकदीरें बदल जाती हैं, ज़माना बदल जाता है, मुल्कों की तारीख़ बदल जाती है, शहंशाह बदल जाते हैं, मगर इस बदलती दुनिया में मोहब्बत जिस इंसान का दामन थाम लेती है......, वो इंसान नहीं बदलता |” यह पंक्तियाँ हिंदी/उर्दू सिनेमा की 173 मिनट समय वाली सबसे आइकोनिक और क्लासिकल फ़िल्म की है जिसने अपनी शानदार कहानी, जानदार अभिनय और कलाकारी तथा अपने उन जादुई गीतों से “मुगल ए आज़म ” नाम को भारतीय सिनेमा जगत की तकनीकी रूप से सबसे सफ़ल और उस समय की सबसे ज्यादा महंगी फिल्म साबित कर दिया था | 5 अगस्त सन् 1960 में आसिफ़ कमाल के निर्देशन में और स्टर्लिंग इन्वेस्टमेंट कारपोरेशन के बैनर तले यह फिल्म अपने समय की सर्वाधिक कमाई करने वाली फ़िल्म थी और इसी के साथ इस फिल्म ने फ़िल्मी जगत के कई कीर्तिमान भी स्थापित किये थे | अगर अपने निजी अनुभव की बात करूँ तो पहली बार जब इस फिल्म को देखा तो उन सभी बातों पर और भी पुख्ता भरोसा हो गया था जो इस फिल्म के बारे में सुनी थी और इस लेख में वे बातें ज़रूर साझा करूँगा | आज के समय तक इस फिल्म को कई बार देखा लेकिन हर बार इस कहानी में कुछ नया सा दिखाई दिया शायद इसलिए ही इस कहानी...

आख़िर कब तक ?

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https://youtu.be/-MxknQdEsRo आखिर कब तक मैं..... कब तक मैं अपने उन ख्यालों को अपने सीने में दफ़न करता रहूँगा जिनको मैंने कभी ये सोचकर बुना था कि एक ना एक दिन तुम उन्हें सुनने के लिए मुझसे जरूर कहोगी | कब तक मैं उन सभी शब्दों को मन  ही मन गुनगुनाकर अपने आप को याद दिलाता रहूँगा जिनको मैंने सिर्फ ओ सिर्फ तुम्हारे लिए लिखा था | कब तक मैं रात में अचानक से आँख खुलने पर तुम्हें याद करता रहूँगा और फिर आधी रात को जागने के बाद तुम्हारी उन सभी तस्वीरों को देखता रहूँगा जिनको मैंने गैर – इश्क़िया ढंग से इकठ्ठा किया था | कब तक मैं अपने इस दिल को दिलासे की थपकी देकर मनाता रहूँगा जो आज भी तुम्हारे नाम को सुनकर अपने पूरे त्वरण के साथ चलने लगता है। ऐसा नहीं है कि कोशिश नहीं की मैंने , हां लेकिन आज भी ये महसूस होता है कि कोई ना कोई कमी जरूर रखी थी, तभी तो आज तुम यहाँ हो, मेरी उन सभी प्रकाशित व अप्रकाशित रचनाओं में, मेरे उन अर्धनिर्मित मुक्तकों और गीतों में, मेरे उन अधूरे लेखों में, मेज पर बिखरे हुए पन्नों में, मेरी मेज की दराज़ में रखी हुई इलायची की खुशबू में, किताबों के बीच छुपाई गयी उस ड...

गांव वाले काका

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बाहर से एक अजीब सा शोर सुनकर मैं AC वाले कमरे से बाहर निकला, यह देखने के लिए कि बात क्या है? पता चला कि गांव से काका आए हैं अनाज लेकर। उसी अनाज  को भंडार घर में इकठ्ठा किया जा रहा है। काका बड़ी ही तल्लीनता के साथ काम में लगे हुए थे, जोकि उनकी आदत ही थी। मन में आया कि मैं भी काम में हाथ बटा दूं। तो मैं भी अनाज के भरे हुए बोरे को उठाकर भंडार घर में रखने लगा। 3 बोरे तो आसानी से रख दिए थे लेकिन चौथे को उठाते हुए मुझे अच्छी खासी मशक्कत करनी पड़ी। पांचवे की बारी आने तक मुझमें उसे उठाने की ताक़त ही नहीं बची थी। काका ने मुझे हांफते हुए देखा, क्यूंकि मैं अच्छी तरह से थक चुका था। " लाला आप ये रहने दीजिए हम सब हैं यहां, आप क्यों परेशान होते हो"। काका की बात में मेरे लिए फिक्र थी लेकिन मुझे इस फिक्र के साथ और भी कुछ महसूस हुआ, वो थी काका की मेहनत। आज तक समझ नहीं पाया था कि काका इतनी मेहनत के काम इस उम्र में कैसे कर लेते हैं, और वो भी बिना थके हुए। आज उस अनाज के बोरे को उठाते हुए मुझे इस बात का अच्छी तरह आभास हो चुका था कि किसान की मेहनत से उगाये गए इस अनाज में कितना वज़न होता...